We are resilient by Force, not by Choice - A Wednesday.

Wednesday, December 31, 2008

अब गुंडे-बदमाश हमें बताएंगे, हम जिंदा कब कहलाएंगे !

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मन तो कह रहा है पंगा मत लो, होगा तो कुछ नही, गुंडों की हिट-लिस्ट में आ जाओगे. घर पर, घरवालों पर या फ़िर दोस्तों पर हमला हो जाएगा या ख़ुद पिट जाओगे और कोई पूछने वाला तक नही होगा.

पर अब ओखली में सर दे ही दिया तो मूसल से क्या डरना.

बात एक 'युवा नेता' की है जो विधायक बनकर देश की जनता खासतौर पर भोपाल की जनता की सेवा करना चाहते हैं. हाल ही में संपन्न हुए विधान सभा चुनाव में ये प्रत्याशी थे और इस वजह से इनके चीखने-चिल्लाने (भाषण) को सुनने का सौभाग्य हमें भी प्राप्त हुआ. हालाँकि ये चुनाव हार गए पर अपने बाहुबल की एक झलक ज़रूर दिखला गए. अब शायद विचार लोक सभा का चुनाव लड़ने का है इसलिए शहीदों की कुर्बानियां और बेगुनाहों की मौतें की इनको याद आ रही हैं.

जैसा की मैं पहले बता चुका हूँ कि मैं पुलिस और नेताओं से सौ हाथ कि दूरी बनाकर रहता हूँ और जिस सड़क पर ये चल रहे होते हैं वहाँ से तो मैं निकलता तक नही, तो इन महाशय के बारे में मैं सिर्फ़ सुनी-सुनाई और पढ़ी-पढ़ाई बातें कर सकता हूँ.

इनके विषय में मैंने पहली बार कक्षा ११ वी में सुना, लोग बताते थे कि इंजीनियरिंग कालेजों के अगर कोई बेताज बादशाह हैं तो ये हैं, पढ़ाई से कोई लेना देना नही, कई बार फेल हो चुके, गुंडागर्दी और मारपीट में अव्वल, कई बार बलवा करवा चुके, कई बार बाजारों पर हमला करवा चुके और कई बार ज़मानत पर छूट चुके, इनके जानने पहचानने वालों में कई नेता, अफसर, पुलिसवाले और इन्ही की बिरादरी वाले (गुंडे-बदमाश) हैं. भोपाल के किसी भी इंजीनियरिंग कालेज में अगर कुछ 'काम' हो तो इनकी शरण में जाएँ.

मुझे तो इनकी सेवाओं की कभी ज़रूरत नही पड़ी और भगवान का शुक्र है इनका और मेरा आमना सामना भी कभी नही हुआ. अलबत्ता जो मित्र इनके गुणगान करते थे उनको ज़रूर चिढा दिया जाता था की एक चार फुटिया तुमको हमसे कैसे बचाएगा.

धीरे धीरे या फ़िर बहुत तेजी से समय बीता और पता चला की महाशय ने दो/तीन(?) इंजीनियरिंग कालेज खोल लिए हैं और साथ ही साथ एक कंस्ट्रक्शन कंपनी भी खोल दी है. खेल तो तभी समझ आ गया, बंदा कांट्रेक्टर बन गया, अब बनेगा नेता. राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एम.ऐ.एन.आई.टी.) में इन्होने संस्थान के कुछ भ्रष्ट लोगों के साथ मिलकर घोटालों की झडी लगा दी. (बात करोड़ों रुपयों के हेर-फेर की है, खैर. )

और इन घोटालों से जो पैसा मिला उससे उतर गए चुनावों में. चुनावों में भी इन्होने कोई कसर नही छोड़ी, खूब शराब बंटवाई, हजारों रूपए बांटे, झुग्गी बस्तियों के अनेकानेक दौरे किए, 'माताओं-बहनों' के बेटे बने, 'पिताओं(?)-भाइयों' का आशीर्वाद प्राप्त किया, लाला बस्ती (कायस्थों) से इन्होने जाति के आधार पर वोट मांगे, और आखिरकार दूसरे स्थान तक पहुँच ही गए.

आज इन्होने हमें बताया की हमें नववर्ष कैसे मनाना चाहिए, हमें पहली जनवरी २००९ को आतंकवाद और अपराध विरोध दिवस के रूप में मनाना चाहिए और मुंबई से मिले हुए घावों को हरा रखना चाहिए. हमें यह साबित करना चाहिए की हम जिंदा हैं!

क्या हम जिंदा हैं? अगर हम जिंदा होते तो क्या इन जैसे गुंडे-बदमाश हमें यह पट्टी पढ़ा रहे होते, अगर हम जिंदा होते तो क्या दैनिक भास्कर जैसे प्रतिष्ठित अखबार से इस तरह के हैवानियत भरे इश्तेहार छापने का हिसाब नही मांगते, अगर हम जिंदा होते तो क्या इस कार्यक्रम के 'सफल आयोजन' और 'सरकार के प्रति जन-आक्रोश' (०२/०१/२००९ के दैनिक भास्कर में पढ़ लीजिएगा यही छपेगा) का पर्दाफाश नही करते?

अगर हम जिंदा होते. . .

काश हम जिंदा होते. . .


[अधिक जानकारी के लिए कृपया इस वेबसाइट पर जाएँ: SAVE MANIT.]